उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
शरीर बना है तुम्हारे गर्भ-काल के तामसी विचारों से और उसी प्रकार के कर्म-फलों वाला आत्मा उसमें आ गया है। मैं देख रहा हूँ कि वह दिन-रात के आठ प्रहर में छः प्रहर सोया ही रहता है। उसे कुछ भी काम करने को कहा जाये तो वह उलटा ही विचार करता है। वह समझता है कि हम उसे कष्ट देने के लिये काम बता रहे हैं।
‘‘अब तुमने एक लड़की उत्पन्न की है। वह स्वेच्छाचारी होगी। ‘‘भगवान जाने, इसके गर्भ-काल में तुम किसका चिन्तन करती रही हो। उसके अनुसार ही तुम्हारी लड़की का शरीर बना है और वैसी ही आत्मा उसमें आ गयी है।
‘‘मन को कैसे श्रेष्ठ, कामना रहित और लोक-कल्याण में रत रखा जा सकता है? यह तुम कुबेर की माता से मिलकर जानो कि वह कैसे अपने मन को श्रेष्ठ और निःस्पृह रखती है?’’
‘‘मुझे वहाँ जाने में संकोच होता है? मैं इस आश्रम में दस वर्ष से हूँ और मैंने उनसे मिलने का कभी यत्न नहीं किया। अब जाने में लज्जा अनुभव होती है।’’
‘‘तो चलो, मैं तुमको वहाँ ले चलता हूँ। तुम्हारा उनसे परिचय करा दूँगा। वैसे तो जो भी स्त्री आश्रम में आती है, वह निस्संकोच हो उनसे मिलने चली जाती है और किसी को वहाँ जाने पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं। न ही किसी के साथ वहाँ भेद-भाव रखा जाता है।’’
ऋषि कैकसी को लेकर रोहिणी की कुटिया में जा पहुँचा। जब ये दोनों कुटिया में पहुँचे तो रोहिणी एक अन्य आसन पर बैठी वेद-पाठ कर रही थी। उसके सामने भूमि पर दस-बारह अन्य स्त्रियाँ बैठी पाठ सुन रही थीं।
ऋषि के कुटिया में पहुँचने पर सब अपने-अपने आसन से उठ खड़ी हुई। रोहिणी हाथ जोड़ प्रणाम कर आदर-युक्त भाव में पति की ओर देखने लगी।
ऋषि ने हाथ उठा सबको आशीर्वाद दिया और सबको बैठ जाने के लिये कहा। जब सब बैठ गयीं तो ऋषि ने अपने साथ आयी कैकसी का परिचय करा दिया। उसने रोहिणी से कहा, ‘‘देवी! यह मेरी दूसरी पत्नी कैकसी है। इसकी इच्छा हुई है कि तुमसे कुछ सीखे। इसलिये यहाँ आयी है।
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