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परिणीता
परिणीता
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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।
चारु के घर में सब लोग उसी की अपेक्षा कर रहे होंगे- देर होने के कारण ऊब रहे होंगे। जितनी देर हो रही है, उतनी ही उन लोगों की बेचैनी बढ़ रही है- यह दृश्य कल्पना के द्वारा ललिता की आँखों के आगे नाचने लगा। किन्तु बचने का कोई उपाय भी उसे नहीं सूझ पड़ता था। और भी 2-3 मिनट तक चुप रहने के बाद फिर उसने कहा- बस, सिर्फ आज ही के दिन जाना चाहती हूँ- जाऊँ?
शेखर ने किताब को एक तरफ फेंक दिया, और धमकाकर कहा- दिक् मत करो ललिता, जाने की इच्छा हो तो जाओ। अब अपना भला-बुरा समझने लायक हो चुकी हो।
सुनते ही ललिता चौंक उठी। ललिता को अक्सर शेखर झिड़कता, डांटता और धमकाता था। आज कुछ पहला ही मौका न था। सुनने और सहने का अभ्यास अवश्य था, लेकिन इधर दो तीन साल से ऐसी कड़ी झिड़की या झड़प झेलने की नौबत नहीं आई थी। उधर साथी सब राह देख रहे हैं, इधर वह खुद भी पहन-ओढ़कर तैयार खड़ी है। सिर्फ रुपये लेने के लिए आना ही आफत हो गया! अब उन सब साथियों से जाकर वह क्या कहेगी?
कहीं जाने-आने के लिए ललिता को आज तक शेखर की ओर से पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त थी, वह कभी रोक-टोक नहीं करता था। इसी धारणा के बल पर वह आज भी एकदम सज-धजकर शेखर के पास केबल रुपये भर लेने आई थी।
इस समय उसकी वह स्वाधीनता ही केवल ऐसे रूढ़ भाव सें खर्च नहीं हो गई, बल्कि जिस लिए स्वाधीनता कुण्ठित हुई वह कारण कितनी बड़ी लज्जा की बात है, यह आज अपनी इस तेरह वर्ष की अवस्था में पहली ही बार अनुभव करके वह भीतर ही भीतर जैसे कटी जा रही थी। अभिमान से आँखों में आँसू भरकर वह और भी पाँच मिनट के लगभग खड़ी रही। इसके बाद अपने घर जाकर ललिता ने दासी के जरिए अन्नाकाली को बुलवाकर उसके हाथ में दस रुपये देकर कहा- काली, आज तुम सब जाकर देख आओ। मेरी तबियत बहुत खराब हो गई है; चारु से जाकर कह दे, मैं आज न जा सकूँगी।
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