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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


सीढ़ी पर किसी की आहट सुनाई दी।

“कौन है?” शशि ने पूछा।

डॉक्टर पलक झपकते ही तेज चाल से बारमदे में चले गए। फिर तुरंत ही वापस आकर बोले, “भारती, सुमित्रा आ रही है।”

उस गहन रात्रि में सुमित्रा के आने का समाचार जैसा अप्रत्याशित था वैसा ही अप्रीतिकर भी था। भारती व्यथित और त्रस्त हो उठी। पलभर बाद सुमित्रा के आने पर डॉक्टर ने स्वाभाविक स्वर में स्वागत करते हुए कहा, “बैठो, क्या अकेली ही आई हो?”

सुमित्रा ने कहा, “हां।” फिर उसने भारती से पूछा, “अच्छी तरह हो न?”

इस एक ही मिनट में भारती ने न जाने क्या-क्या सोच डाला, इसका ठिकाना नहीं। उस दिन की तरह आज भी सुमित्रा उसकी कोई परवाह नहीं करेगी, यह वह निश्चित रूप से जानती थी। लेकिन इस कुशल प्रश्न से नहीं बल्कि उसकी आवाज में स्निग्ध कोमलता देखकर भारती मानो सहसा अपने हाथों में चंद्रमा को पा गई। बोली, 'अच्छी तरह हूं जीजी, आप तो अच्छी तरह हैं न?”

“हां, अच्छी तरह हूं। कहकर सुमित्रा एक ओर बैठ गई।

डॉक्टर बोले, “शशि के मुंह से मैंने सुना कि तुम बहुत ही बड़ी सम्पत्ति की उत्तराधिकारी होकर जावा जा रही हो?”

“हां, मुझे ले जाने के लिए आदमी आया है।”

“कब जाओगी?”

“शनिवार को पहले स्टीमर से।”

“अब तो तुम बड़ी धनवान हो।”

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