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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


डॉक्टर बोले, “मैं यह जानता हूं। मैंने उनको छोटा नहीं कहा।”

अपूर्व बोला, “आपने कहा है। उन पर और मुझ पर आपने व्यंग्य किया है। लेकिन मैं जानता हूं, जन्मभूमि उन्हें प्राण से अधिक प्यारी है। वह निडर हैं आपकी तरह लुक-छिपकर नहीं घूमते।”

आश्चर्य से भारती बोली, “आप किसको क्या कह रहे हैं अपूर्व बाबू? आप पागल तो नहीं हो गए?”

अपूर्व ने कहा, “नहीं पागल नहीं हूं। यह जो भी क्यों न हों लेकिन रामदास तलवलकर की पद-धूलि के बराबर नहीं हैं। यह बात मैं स्पष्ट शब्दों में कह सकता हूं। उसके तेज, उसकी निर्भीकता से ये मन-ही-मन ईष्या करते हैं। इसीलिए तुम्हें जाने नहीं दिया और मुझे भी चतुराई से रोक दिया।”

भारती उठकर बोली, “मैं आपका अपमान नहीं कर सकती, लेकिन आप यहां से चले जाइए अपूर्व बाबू! हम लोगों ने आपको गलत समझा था। भय के कारण जिसे हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता, उनके पागलपन के लिए यहां स्थान नहीं है। आपका कहना सच है - पथ के दावेदारों में आपको स्थान नहीं मिलेगा। आज के बाद किसी भी बहाने मेरे घर आने का कष्ट मत कीजिएगा।”

अपूर्व निरुत्तर होकर उठ खड़ा हुआ। लेकिन डॉक्टर ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “जरा बैठिए अपूर्व बाबू, इस अंधेरे में मत जाइए। मैं स्टेशन जाते हुए आपको डेरे पर पहुंचाता जाऊंगा।”

अपूर्व की चेतना लौट रही थी। वह सिर झुकाकर बैठ गया।

चाय पीने के बाद जो बिस्कुट बचे थे उनको डॉक्टर साहब जेब में डाल रहे हैं, यह देखकर भारती ने पूछा, “यह आप क्या कर रहे हैं?”

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