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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


“खुराक जुटाकर रख रहा हूं बहिन।”

“क्या सचमुच ही आज रात को ही चले जाइएगा?”

“तो क्या मैंने अपूर्व बाबू को बेकार ही रोका है? सभी एक साथ मिलकर अविश्वास करेंगे तो मैं जीऊंगा भारती।” यह कहकर उन्होंने बनावटी क्रोध दिखाया।

भारती ने अभिमान के साथ कहा, “नहीं, आज आपका जाना नहीं होगा। आप बहुत थक गए हैं। इसके अतिरिक्त सुमित्रा दीदी अस्वस्थ हैं। आप तो बराबर ही न मालूम कहां चले जाते हैं। मैं आपकी एक बात नहीं सुन सकती, 'पथ के दावेदार' को मैं अकेली कैसे चलाऊं? इस दशा में मेरी जहां तबियत होगी चली जाऊंगी।”

लिखे हुए पत्र उसके हाथ में देते हुए डॉक्टर ने हंसकर कहा। इनमें एक तुम्हारे लिए है, एक सुमित्रा के लिए और तीसरा तुम दोनों के पथ के लिए है। मेरा उपदेश कहो, आदेश कहो, सब कुछ यही है।”

भारती बोली, “इस बार क्या आप बहुत दिनों के लिए जा रहे हैं?”

“देव: न जानन्ति....।” कह करके मुस्करा दिए।

भारती बोली, “हम लोगों की कठिनाई बढ़ गई है। इसीलिए ठीक-ठीक बता जाइएगा कि आप कब लौटेंगे?”

“यही तो कहता हूं- देवं न जानन्ति....”

“नहीं, ऐसा नहीं होगा। सच-सच बताइए, कब लौटिएगा?”

“इतना आग्रह क्यों है?”

भारती बोली, “इस बार न मालूम क्यों डर लग रहा है। मानो सब कुछ टूट-फूटकर छिन्न-भिन्न हो जाएगा।”

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