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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


उनकी बातों में नई बात कुछ भी नहीं थी फिर भी मृत्यु और इस भयंकर संकल्प का पुन: उल्लेख होने से भारती के हृदय में आंसू उमड़ के आंखों में छलक उठे। बोली, लेकिन अकेले क्या करोगे भैया? सभी तो तुम्हें छोड़कर दूर हटते जा रहे हैं?

डॉक्टर बोले, जाने दो। मेरे देवता तो धोखा नहीं दे सकते।

भारती के मुंह पर यह बात आ गई कि संसार में सभी धोखेबाज नहीं होते भैया। हृदय पत्थर न हो गया होता तो तुम इस बात को समझ जाते। लेकिन उसने यह बात कही नहीं।

भोजन समाप्त कर, हाथ-मुंह धोकर डॉक्टर कुर्सी पर जा बैठे। किसी ने नहीं देखा कि उनकी आंखों की दृष्टि किसी की बड़ी उत्कंठा से प्रतिक्षा करते-करते धीरे-धीरे विक्षुब्ध होती जा रही है और उनका एक कान बहुत देर से सदर दरवाज़े पर सतर्क होकर लगा हुआ है। यह कोई भी नहीं जानता था। सड़क के किनारे किसी तरह की आवाज़ सुनाई दी। लेकिन उसकी किसी ने परवाह नहीं की। लेकिन डॉक्टर चौंककर उठ खड़े हुए। उन्होंने पूछा, नीचे अपूर्व का नौकर है न? वह जाग रहा है? ऐ हनुमंत, जरा दरवाजा खोल दे।

कहां, किसके लिए, कैसा बिछौना बिछाया जाएगा, भारती सुमित्रा से यही पूछ रही थी। उसने आश्चर्य से मुंह फेरकर पूछा, किसके लिए भैया? कौन आए हैं?

डॉक्टर ने कहा, हीरा सिंह है। तभी से उसी की बाट देख रहा हूं। बताओ कवि, कुछ अंशों में काव्य-सा सुनाई दिया न? कहकर वह हंस पड़े।

भारती बोली, इस दुर्दिन में अकेले तुम्हारे काव्य की ज्वाला से ही हम लोग संत्रस्त हो रहे हैं। फिर यह भग्न दूत किसलिए?

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