ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
“है? बहुत विश्वास है? और अगर मैं...।"
मुँह पर हाथ रख दिया और कहा, "नहीं-नहीं, ऐसा न कहो। ऐसा हो ही नहीं सकता था परन्तु मैं तुमसे बहुत नाराज हूँ। बहुत नाराज हूँ।“
"क्यों?"
“तुमने मुझे यह सब बताया क्यों नहीं? खुद इतनी तकलीफें सहीं और मुझे....।"
काँप उठी। कहा "सब याद न दिलाइये। वचन निभाने की कोशिश की। अच्छा, मुझे हुआ क्या था?"
“न, न यह मत पूछो। मत पूछो कि मैंने तुम्हें कैसे पाया? घर पहुँचा तो सब पता चला। तब चिल्ला उठा। तुम्हें कोई नहीं समझ पायेगा, यह जानता था। परन्तु तुम इस तरह इतने दुःख अकेले ही पी जाओगी, पता न था। फिर कैसे मैंने तुम्हें ढूंढा, कैसे सब अपने किये पर पछताये। यह तो एक लम्बी कहानी है। अब तो सब खत्म हो चुका है। मैं अब तुम्हारा बोझ सँभाल सकता हूँ और पिता जी....।"
“पिता जी?" एक रोज उन्होंने तुम्हें चौखट के बाहर निकाल दिया था, आज वे स्वयं अपनी बाहें फैलाये अपनी बहू को लेने आये हैं। तुम्हारे दुःख, तुम्हारी कुर्बानी, तुम्हारे त्याग ने तो सबकी आँखें खोल दी हैं। बुलाऊँ उन सबको?”
लज्जा से सिमट गई। कहा, "कहाँ? ऐसी हालत में?"
हँस कर कहा, "अरी पगली,यहाँ इस हालत में उन सबने तुम्हारी बडी़ सेवा की है। तुम्हें मौत के जबडो़ से छीना है उन्होंने। तुम्हारे लिए सबने जिन्दगी का दाँव लगा दिया था अब तो उनकी इतनी अपनी हो। इतनी अपनी हो...।“
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