ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
बादल के आंसू
घर वापस आए उन्हें दस दिन हो चुके हैं।
माँ जी ने रसोई की चौखट के पास रुककर कहा, "बहू, अरे इतना धुआं क्यों कर रखा है? यह मुई आग तक नहीं जल सकेगी तुमसे? सुबह से सारे घर के दीदे फोड़ रही हो?"
सुधा ने सुर्ख लाल आँखें उठाकर सास की और देखा औऱ फिर अनसुनी आवाज में कहा, "माँ जी, इस बार लकड़ियाँ बहुत गीली आई हैं। बहुत धुआं देती हैं।"
माँ जी चेहरे के आगे हाथ नचाकर बोली, "दोष लकड़ियों को ही दोगी। यह नहीं कि जरा ध्यान से दो मिनट चूल्हे के आगे बैठ भी लो। रसोई भर में नाचती रहती हो। सारे घर को सर पर उठा रखा है। यह ख्याल नहीं कि जल्दी से नाश्ता तैयार कर लो।"
पिता जी ने जाने कैसे माँ जी को आवाज सुन ली।
"क्यों चिल्ला रही हो सुबह-सुबह। क्या आफत आ गई?"
माँ जी उनकी आवाज सुनकर औऱ जोर से चिल्लाने लगी।
"आफत अब क्या आयेगी? आफत तो उसी दिन आई थी जब तुम इस निगोड़ी को घर लाये थे। आते ही मेरे बेटे को मुझसे जुदा कर दिया। जबसे गया है एक दिन के लिए भी तो नहीं आया है। मेरी तो आँखें तरस गई है उसे देखने को। जाने इस चुडै़ल ने उसे क्या सिखा दिया है कि अपने माँ-बाप को ही भुला बैठा है"(आँचन को आँखों पर मलते हुए) "देख री बहू कहे देती हूँ, इस तरह काम नहीं चलेगा। जो जादू तुमने उस पर किया है उसे उतारना ही होगा। ऐसा भी कभी सुना है कि एक बेटा अपनी माँ से यूँ जुदा हो जाये।"
"माँ जी ........।” सुधा रुआंसी हो उठी।
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