ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
हाथों पैरों में कोई ताकत हो या न हो। सारा शरीर टूट रहा हो। गहरी नींद के मारे आंखें खोलना भी मुमकिन न लगता हो। बाहर जाड़े के तूफान हों।
परन्तु एक दिन भी ऐसा न हो सका कि घर भर से बहुत पहले उठने, जल्दी से नहाने-धोने औऱ दूसरों के कितने कामों में जुट जाने से जान बच पाती हो।
कहते हैं नारी का जीवन ही सेवा है।
परन्तु ऐसी भी सेवा क्या कि अपने आपका होश तक नहीं।
एक काम से छुट्टी मिली तो और हजारों काम प्रतीक्षा कर रहे हैं।
जूठे बर्तनों को साफ करने बैठी तो दिल दहल सा उठा। इतने सारे बर्तन?
परन्तु पता भी न चला और आंखों में उमड़ते आंसू पी कर एक निर्जीव मशीन की तरह राख से हाथ लथपथ कर लिए। कितना ही समय बीत गया, हाथ चलते जा रहे हैं।
बर्तनों के अम्बार बढ़ते जा रहे हैं।
और कोई हाथ बटाने बाला भी तो नहीं है।
किसी को उस पर दया आ जाये ऐसी भी तो कोई बात नहीं। पहले तो कभी-कभी दिल में बगावत की, घृणा की और गुस्से की लहरें आ-आ उमड़ती थीं, अब तो ऐसा कुछ भी नही होता।
अब तो जैसे वह बेहिस बे-जान हो गई है।
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