ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
सोचती, जीवन का यह कैसा निबाह है? वह कैसे चुपचाप सब कुछ सहे जा रही है।
क्या सचमुच उसके मन की कामनायें मर चुकी है?
क्या सचमुच दिल की कोपलें सूख चुकी है? क्या अब वह एक बेजानदार चीज की तरह इच्छा औऱ अभिलाषा करना भूल गई है?
इच्छा? इच्छा क्या होती है, यह तो इच्छा के बावजूद भी याद याद नहीं आता.....।
कभी-कभी तो यूँ लगता है कि जैसे वह जीवित ही नहीं है।
उसने अपने आपको मिटा दिया है।
आत्मा नाम की चीज उसमें है ही नहीं।
शरीर है तो हडि्डयों का ढाँचा बनता जा रहा है।
अभी तक कमजो़री दूर ही कहाँ हुई है? इतना तेज बुखार हुआ था। डाक्टरों ने कहा था अभी 2-4 महीने वह पूरा आराम करे।
औऱ ऐसी दशा में तो आराम उसके लिए बहुत जरुरी हैं। उसके लिए अच्छी खुराक चाहिये।
कोई भारी काम करना उसके लिए नुकसानदेह है। एक बड़ी ज़िम्मेदारी का बोझ उसके कंधों पर है। एक नन्हीं सी कोंपल उसके शरीर से फूटना चाहती है। एक नन्हा सा औऱ मीठा सा जीवन-स्त्रोत उसके अस्तित्व से उबलना चाहता है।
औऱ यह स्त्रोत नये जीवन का प्रतिनिधि है। उसका अस्तित्व एक नये साँचे में ढलने वाला है और यह उसके लिए गर्व की बात है।
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