ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
उन्हें कभी यह न लिखेगी कि इन दीवारों के बीच अब उसका दम घुटने सगा है।
उन्होंने एक दिन कहा था, "सुधा, मां बाप का मेरे ऊपर बहुत ऋण हैं। मैं बहुत बुरा हूँ। छोटा और कमजो़र। कभी उन्हें कोई सुख न दे सका। जाने क्यों बचपन से ही वे दूर-दूर हो गये। दिल ही दिल में हजा़रों इच्छाओं के बावजूद भी उनकी एक भी इच्छा पूरी नहीं कर सका। परन्तु अब तो मैं अकेला नहीं। अब तो तुम मेरी शक्ति हो। अब तो तुम्हारे सहारे मैं अपने सारे अरमान पूरे कर लूँगा। मेरी मदद करोगी न?”
"हाँ....हाँ।" उसने कहा था।
होंठों ही होंठों में से बुदबुदाई थी। जाने कहाँ से, कैसा लगा था कि वह सोचने लगी थी कि आज से माँ-बाप के चरण, जो उसके भाग्य में कभी न थे, वह पा गई है।
अब वह उन्हें कभी न छोडे़गी। कभी न छोड़ेगी।
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परन्तु वह करे भी तो क्या?
कैसे यह सब सहे?
अब तो शरीर बहुत दुर्बल होता जा रहा है।
उचित भोजन मिलता ही नहीं।
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