ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
अन्दर ही अन्दर कोई जा़नदार चीज कुलबुलाया करती है और घर के अनथक काम करते-करते बार-बार यूँ लगने लगता है कि जैसे वह अब यह सब तकलीफ सहन कर सकेगी।
यह इतने दुख इतने दर्द, जो वह ज़माने भर से छिपाये है, अपने जीवन रहस्य की तरह ही, इस पीड़ा को भी वह किसी पर स्पष्ट नहीं कर सकती और अंदर ही अंदर वह दहकती रहती है।
ज़बान से उफ तक नहीं करती।
बस उस मिर्दयी को याद करके रोया करती है तो दर्द की मात्ना कुछ कम हो जाया करती हैं।
यह निर्दयी अब भी उसी तरह अंधेरे कमरे की तन्हाई में बार-बार एक ख्याल की तरह उसके पास आता है और कहता है, " अभी औऱ इंतजा़र करना है, मेरे प्राण। अभी कुछ दिन और.....।"
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ऐसी ही एक सुबह एक नयी बात हो गयी।
माँ जी अचानक ही उसके सामने खड़ी हुई। कहा,"बहू।"
उसने नज़रे उठा कर उनके गुस्से से तमतमाये चेहरे को देखा फिर फौरन ही नज़र झुका लीं।
"बहू।" माँ ने कहा "यह नन्दी को आखिर हुआ क्या है?"
उसका कलेजा दहल उठा।
काम करते-करते हाथ रूक गये। पूछा, "क्यों माँ जी?"
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