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पिया की गली

कृष्ण गोपाल आबिद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :171
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9711

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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण


“मैं पूछती हूँ कि उसे इस तरह सर पर चढ़ाने के लिए तुम्हें किसने कहा था? जब से वह तुमको मायके से लेकर आया है वह किसी की सुनता ही नहीं। हरदम तुम्हारी रट लगाये रहता है। आखिर तुम्हें औऱ भी काम है। हर समय दुमछल्ले की तरह उसके आगे पीछे रहना.....”

"माँ जी, हुआ क्या है?" उसने होंठों ही होठों में हंसी दबाते हुए पूछा।

"सुन ले बहू, तू चाहे हँस चाहे रो। मुझे यह लक्षण अच्छे नहीं लगते। चढ़ती दोपहरिया तक सोया रहता है। उठेगा तो तुम्हारे हाथों, नाश्ता करेगा तो तुम्हें सामने बिठा कर। खाना खायेगा तो तुम्हारे पास बैठ कर। यहाँ तक तो चलो मान लिया। देवर भौजाई में प्यार होता ही है परन्तु वह इस तरह बदतमीज़ हो जाये.....।"

“मगर वह तो बहुत सुशील है माँ जी।"

उसने जाने कैसे यह सब कहने का साहस बटोरा।

"क्या कहा? सुशील है? तुम उसे सुशील कहती हो? अपने बड़ों की इस तरह बेइज्जती करे। किसी को खातिर में न लाये। मँझली बहू ने मुन्ने के लिए दूध का डिब्बा ला देने के लिए कहा तो टका-सा जवाब दे दिया। ऊपर से चार बातें सुनाई।

मँझली ने कहा 'छोटी का काम तो दौड़ दौड़ कर करते हो। कहने लगा, “सात जनम में भी तुम मेरी छोटी भाभी नहीं बन सकतीं। उसका मुकाबला ही बेकार करती हो।

आखिर मैं पूछती हूँ। कि तुम में ऐसे कौन से सुर्खाब के पर लगे हुए है कि जो इस तरह हर बात में वह तुम्हारी हिमायत करता है? मँझली रो रही थी।

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