ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
दुकान पर जाकर तुम्हारे पिता जी को जाने क्या-क्या बताया गया कि वह नन्दी से बहुत नाराज हैं औऱ गुस्से में हैं। मैं पूछती हूँ बहू इस तरह नन्दी को दूसरों की नज़रों में गिराने से तुम्हें क्या मिल जायेगा?"
वह सर से पैर तक काँप उठी।
क्रोध की एक तीव्र लहर सीने के आर-पार हो गई।
काँपती आवाज़ में कहा "माँ जी, हर एक के अपने-अपने विचार होते हैं। उसमें मैं क्या कर रही हूँ या औऱ कोई क्या कर रहा है यह तो आप परखने पर ही जान पायेंगी। फिर भी मैं नन्दी को समझाऊँनी कि वह मेरे कारण बेकार के झगडे़ मोल न लें।"
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तीसरे दिन सुबह-सुबह नन्दी ने उसके कमरे में डेरा लगा लिया।
जब सूरज सर पर आ पहुँचा तो वह रसोई में आ धमका।
“भाभी, ओफ ओह ! तुम्हें तो फुर्सत ही नहीं मिलती। सुबह तड़के से तुमसे बात करने के लिए तरस रहा हूँ। घर के कोने-कोने को चमका रही हो और अपने कमरे की तरफ ध्यान ही नहीं। अब कब तक इंतजार करना पड़ेगा कि तुमसे एक बात कह सकूँ।"
वह दोपहर के खाने के लिए आटा गूँध रही थी। एक क्षण के लिए हाथ रोककर नज़रें उठायीं। सामने रसोई के दरवाजे़ में वह खड़ा था। एक टक उसे ही देखे जा रहा था।
उसने आहिस्ता से आंचल संभालकर धीरे से मुस्कराने की कोशिश की और पूछा "हां, क्या बात है नन्दी?"
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