ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
“यह आदेश नहीं अन्याय है। मैं उन्हें आज ही लिखूंगा, यह अन्याय है, अन्याय अन्याय। मेरी कोई सुनता ही नहीं है। दूसरी भाभियां इस तरह आराम करती रहती हैं। मां अपनी लाड़ली का दहेज तैयार कर रही हैं और तुम्हारी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं है। मैं कहता हूँ......कहता हूँ।“
न जाने किसी कार्य से मां और बडी़-मंझली भाभियाँ आ गई।
“नन्दी। तू यहाँ क्या कर रहा है? कालेज नहीं गया?”
“नहीं, और जाऊँगा भी नहीं। ”
“जाओगे भी नहीं? यह क्यों?”
"छोटी की हिमायत में लेक्चर जो देना है इसे। सारे पाठ तो यहीं पढ़ लेता है। कालेज में पढ़ने के लिए रह ही क्या जाता है?”
“बडी़ भाभी !” वह गुस्से के मारे कांप उठता है। "तुम्हें इस तरह मेरे मामले में बोलने का कोई अधिकार नहीं है। तुम......तुम।"
“हां -हां" बडी़ भाभी ने हाथ नचा कर कहा, "अब हमें अधिकार क्यों होने लगा? हम तुम्हारी लगती ही कौन हैं? हम तुम्हारे लिए कर ही क्या सकती हैं? न तो हमें लाड़ आते हैं और न तो हम इतने बेशर्म हैं कि तुम्हारे घुटने से घुटना जोड़कर.....।“
"बडी़ भाभी।" वह चिंघाड उठा।
"मुझे अखें मत दिखाओ। अभी मेरा खसम कमा सकता हैं। किसी की तरह निखट्टू की औरत नहीं जो सारा दिन आंखें नीची करके घर भर का काम करती रहूँ। सुन लो मां, इसे कह दो कि मेरे मुँह न लगे वरना इसके सारे लक्षण एक-एक करके फाश कर दूँगी।"
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