ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
"बहू, मेरा नन्दी तो मेरे सब बच्चों से अच्छा था। इतना होनहार, इतना हँसमुख मेरा सबसे छोटा बच्चा, मेरा सब से प्यारा बच्चा। तुम जानती हो तुम्हारे पिताजी उससे जितना प्यार करते हैं, उतना बाकी सबको मिला कर भी नहीं करते। फिर क्या यह अच्छी बात है कि उन्हें इस तरह दुःख दिया जाये?"
“माँ जी। मैं क्या कर सकती हूँ?"
“तुम क्या कर सकती हो, यह तो मैं भी नहीं जानती। परन्तु एक बात कहने आई हूँ। भगवान के लिए मेरा नन्दी मुझे लौटा दो मेरा तो मां का कलेजा है। मेरे बच्चे मेरी आँतें हैं। मैं इतना बिछोह कैसे सह सकती हूँ? जबसे उसने तुम्हारा चेहरा देखा है हम सभी को भूल बैठा है। कहता है 'मां मुझ पर बहुत ज़िम्मेदारियाँ आ गई हैं। उसके योग्य जितना जल्दी वन सकूँ उतना अच्छा है। तुमने मेरे बेटे को इतना जल्दी इतना सयाना बना दिया, चलो मैंने कलेजे पर पत्थर रख लिया। परन्तु मेरा यह नन्दी....।"
मां रोने लगीं।
वह पत्थर बनी वहीं बैठी रही। कहे भी तो क्या?
गर्म पिघले हुए शीशे की तरह यह सारी बातें अपने अन्दर सिमोती जा रही है।
दोष हर जगह उसी का निकल आता है।
हर बात में कसूर उसी का होता है।
फिर अपने-आपको चुपचाप दोषी मान लेने के सिवाय चारा ही क्या है? कहे भी तो क्या?
माँ देर तक टसुवे बहाती रही।
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