ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
सोचा था भावना से कर्तव्य ऊँचा है। इसीलिए कर्तव्य को हाथ से कभी न जाने दिया। जीवित रहेगी तो कर्तव्य निभाना ही होगा।
नन्दी भी तो एक कर्तव्य है।
एक दिन कहने लगा 'भाभी जाने यह कैसा मोह है। परन्तु अब तो लगता है कि संसार में किसी के किसी रिश्ते का कोई महत्व नहीं है। न कोई किसी का बाप, न कोई बेटा। न कोई माँ, न कोई लड़की। न कोई पत्नी, न कोई पति। न कोई भाई और न कोई सगा सम्बन्धी। मैं तो एक ही बात देख रहा हूँ, इस छल कपट की दुनियाँ में कोई किसी का नहीं। सबको अपनी-अपनी पडी़ है। फिर यह देखकर बहुत गुस्सा आता है कि तुम अपना अस्तित्व इन सब लोगों के लिए इस तरह क्यों मिटा रही हो?”
"नन्दी तुमने वायदा किया था कि बेकार की बातें नहीं सोचेगे?”
"पर इस सोच मेरा बस कहाँ है। तुम तो देवी हो भाभी। पर मैं तो देवता नहीं। एक साधारण सा मनुष्य हूँ। मैं कैसे मन को इस तरह काबू में रख सकता हूँ?"
“देवता बनने की कोशिश क्यों नहीं करते। जानते हो ही कि देवताओं की पूजा होती है।“
बहुत जो़र से हँस पडा़ नन्दी। कहा, "देवताओ की पूजा? इस अधर्मी युग में? तुम भी कमाल करती हो भाभी। एक देवी को तो देख रहा हूँ कि किस तरह उसकी पूजा होती है। इस दौर में देवी-देवताओं पर पत्थर फेकें जाते हैं, भाभी पत्थर। पत्थरों से दिल का गुबार निकाला नहीं करवानी है अपनी पूजा।“
फिर थोडी़ देर बाद....." अच्छा भाभी सच बताओ तुम जानती हो सुख क्या है?”
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