ई-पुस्तकें >> पिया की गली पिया की गलीकृष्ण गोपाल आबिद
|
1 पाठकों को प्रिय 12 पाठक हैं |
भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण
उसके होंठों पर मुस्कुराट आ गई, कहा, "हाँ”
"क्या?” उसने आँखें उस पर गाड़ दीं।
"त्याग, तप औऱ कर्त्तव्य की अग्नि में जलना ही तो सुख है।"
“ग़लत।" वह चीख उठा।
"तुम मुझे बहलाना चाहती हो भाभी। फिर मुझे बहलाना चाहती हो। मैं बच्चा नहीं कि यह सब समझ भी न सकूँ। बच्चा नहीं हूँ। हाँ, हाँ बच्चा नहीं हूँ। मेरे भी दिल है। मेरे भी आँसू बहते हैं। मेरे भी शरीर में रक्त दौड़ता है। भाभी, मैं तुमसे बिनती करता हूँ। हाथ जोड़ कर विनती करता हूँ, इस तरह अपने आपको इतना दुःख न दिया करो। मैं तुम्हें देख कर पागल हो उठता हूँ। हाँ सचमुच पागल हो उठता हूँ। पागल।"
0
फिर जाने कैसे एक रात आप ही आप उसे बुखार ने आ दबोचा।
जिस्म बहुत बेडोल हो गया है।
उठना-बैठना दूभर सा लगता है।
किसी बात में मन नही लगता है।
खाली बैठा भी नहीं जाता। और फिर यह भी तो है कि वह काम न करे तो घर भर के काम खत्म ही नहीं हो पाते।
परन्तु आखिरकार इस बुखार ने इस कदर निढा़ल कर दिया कि सुबह बहुत कोशिश के बावजूद भी उठा नहीं गया।
|