ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
19
दूसरे दिन मेरी अनिच्छा के कारण जाना न हुआ किन्तु उसके अगले दिन किसी प्रकार भी न अटका सका और मुरारीपुर के अखाड़े के लिए रवाना होना पड़ा। जिसके बिना एक कदम भी चलना मुश्किल है वह राजलक्ष्मी का वाहन रतन तो साथ चला ही, पर रसोईघर की दाई लालू की माँ भी साथ चली। कुछ जरूरी चीजें लेकर रतन सबेरे की गाड़ी से रवाना हो गया है। वहाँ पहुँचकर वह स्टेशन पर पहले ही से दो घोड़ागाड़ियाँ ठीक कर रक्खेगा। हम लोगों के साथ जो सामान बाँध गया है वह भी तो कम नहीं है।
मैंने प्रश्न किया, “वहाँ क्या घर-बार बसाने जा रही हो?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “वहाँ क्या दो-एक दिन भी न रहेंगे? देश के वन-जंगल, नदी-नाले, घाट-मैदान क्या तुम अकेले ही देख आओगे? मैं क्या उस देश की लड़की नहीं हूँ? मेरी क्या देखने की इच्छा नहीं होती?”
“मानता हूँ कि होती है, पर इतनी चीजें, इतने तरह का खाने-पीने का आयोजन।”
“तो तुम क्या यह कहते हो कि देवस्थान में खाली हाथ चला जाय? और तुम्हें तो कुछ सब ढोना नहीं है, फिर इतनी चिन्ता क्यों?”
चिन्ता तो बहुत थी, पर कहता किससे? सबसे अधिक भय इसी बात का था कि यह वैष्णवी-वैरागियों का छुआ हुआ देवता का प्रसाद माथे पर तो मजे से चढ़ा लेगी किन्तु मुँह में न डालेगी। और कौन जानता है कि वहाँ जाकर किस बहाने उपवास प्रारम्भ कर देगी या भोजन पकाने बैठ जायेगी। केवल एक भरोसा है। राजलक्ष्मी का मन सचमुच ही भद्र है। अकारण गले पड़कर वह किसी को चोट नहीं पहुँचा सकती। यदि उसे कुछ ऐसा करना भी हुआ तो प्रसन्न-मुख हास-परिहास के साथ इस प्रकार करेगी कि मुझे और रतन को छोड़ कोई समझ भी नहीं पायेगा।
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