ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
राजलक्ष्मी ने खुश होकर कहा, “देखा न? मैं कहती हूँ कि ये बड़ी अच्छी गणना करते हैं, पर तुम लोग तो किसी बात पर विश्वास ही नहीं करना चाहते-हँसकर उड़ा देते हो।”
कमललता ने कहा, “अविश्वास किसका? नये गुसाईं, जरा अपना हाथ भी तो एक बार ज्योतिषीजी को दिखाओ।”
मेरे हाथ फैलाते ही ज्योतिषीजी ने अपने हाथ में मेरा हाथ ले लिया, दो-तीन मिनट तक पर्यवेक्षण किया, हिसाब लगाया, फिर कहा, “महाशय, देखता हूँ कि आपके लिए एक बड़ी बहुत विपत्ति...
“विपत्ति? कब?”
“बहुत जल्दी। मरने-जीने की बात है।”
राजलक्ष्मी की ओर ताककर देखा कि उसके चेहरे पर खून नहीं है- वह डर से सफेद पड़ गया है।
ज्योतिषी ने मेरा हाथ छोड़कर राजलक्ष्मी से कहा, “माँ, तुम्हारा हाथ एक बार और...”
“नहीं, मेरा हाथ अब नहीं देखना होगा, देख चुके।”
उसका तीव्र भावान्तर अत्यन्त स्पष्ट था। चतुर ज्योतिषी फौरन समझ गया कि हिसाब करने में उसने गलती नहीं की है। बोला, “मैं तो माँ दर्पण-मात्र हूँ, जो छाया पड़ेगी वही कहूँगा- पर रुष्ट ग्रह को भी शान्त किया जा सकता है, इसकी विधि है- सिर्फ दस-बीस रुपये खर्च करने की बात है।”
“तुम हमारे कलकत्ते के मकान पर आ सकते हो?”
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