ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
'क्यों न आ सकूँगा माँ, ले जाने पर चला चलूँगा।”
“अच्छा।”
देखा कि ग्रह के कोप के प्रति तो उसको पूरा विश्वास है, पर उसे प्रसन्न कर लेने के बारे में काफी सन्देह है।
कमललता ने कहा, “चलो गुसाईं, तुम्हारी चाय तैयार कर दूँ, वक्त हो गया है।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “मैं बना लाती हूँ दीदी, तुम जरा इनके बैठने की जगह ठीक कर दो और रतन से हुक्का तैयार करने के लिए कह दो। कल से तो उसकी छाया भी नजर नहीं आयी।”
ज्योतिषी को लेकर सब कलरव करने लगीं, हम चले आये।
दक्षिण के खुले बरामदे में मेरी रस्सी की खाट पड़ी है, रतन ने झाड़-पोंछ दी, हुक्का दिया, मुँह-हाथ धोने को पानी ला दिया। कल सबेरे ही बेचारे को काम से फुर्सत नहीं मिली, फिर भी मालकिन कहती हैं कि उसकी छाया तक नहीं दीखी! मेरी विपत्ति-योग आसन्न है, पर रतन से पूछने पर वह अवश्य कहता, “जी नहीं, विपत्ति-योग आपका नहीं- मेरा है।”
कमललता नीचे बरामदे में बैठकर गौहर का संवाद पूछ रही थी। राजलक्ष्मी चाय ले आयी, चेहरा बहुत भारी हो रहा है, सामने के स्टूल पर प्याली रखकर बोली, “देखो, तुमसे हजार दफा कह चुकी कि वन-जंगलों में मत घूमा करो- आफत आते कितनी देर लगती है? गले में आँचल डाल और हाथ जोड़कर तुमसे प्रार्थना करती हूँ कि मेरी बात मानो।”
अब तक चाय बनाते-बनाते राजलक्ष्मी ने शायद यही सोचकर स्थिर किया था। 'बहुत जल्दी' का दूसरा क्या अर्थ हो सकता है?
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