ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
कमललता ने आश्चर्य के साथ कहा, “वन-जंगलों में गुसाईं कब गये थे?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “कब गये, क्या यह मैं देखा करती हूँ दीदी? मुझे क्या दुनिया में और कोई काम नहीं है?”
मैंने कहा, “देखा कभी नहीं है, सिर्फ अन्दाज है। ज्योतिषी बेटा अच्छी आफत में डाल गया!”
सुनकर रतन दूसरी ओर मुँह फेर जल्दी से चला गया।
राजलक्ष्मी ने कहा, “ज्योतिषी का क्या दोष है, वह जो देखेगा वही तो बतायेगा? संसार में विपत्ति-योग नाम की क्या कोई चीज ही नहीं है? आफत में क्या कभी कोई नहीं पड़ता?”
इन सब प्रश्नों का उत्तर देना फिजूल है। राजलक्ष्मी को कमललता ने भी पहिचान लिया है, वह भी चुप रही।
चाय की प्याली अपने हाथों में लेते ही राजलक्ष्मी ने कहा, “दो-चार फल और थोड़ी-सी मिठाई ले आऊँ?”
कहा, “नहीं।”
“नहीं क्यों?” 'नहीं' छोड़कर 'हाँ' कहना क्या भगवान ने तुम्हें सिखाया ही नहीं?” पर मेरे मुँह की ओर देखकर सहसा अधिकतर उद्विग्न कण्ठ से प्रश्न किया, “तुम्हारी दोनों आँखें इतनी लाल क्यों दिखाई दे रही हैं? नदी के सड़े पानी में नहाकर तो नहीं आये हो?”
“नहीं, आज स्नान ही नहीं किया।”
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