ई-पुस्तकें >> श्रीकनकधारा स्तोत्र श्रीकनकधारा स्तोत्रआदि शंकराचार्य
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लक्ष्मी आराधना के स्तोत्र
प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत्प्रभावान्
मांगल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्द्धं
मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः॥7॥
समुद्र-कन्या कमला की वह मन्द, अलस मन्थर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान् अधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, यहाँ मुझपर पड़े।।7।।
दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधाराम्
अस्मिकिंचनविहंगशिशौ विषण्णे ।
दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं
नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः ॥8॥
भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्मरूपी घाम को चिरकाल के लिये दूर हटाकर विषाद में पड़े हुये मुझ दीनरूपी चातक-पोतपर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करे ।।8।।
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