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उर्वशी
उर्वशी
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 2
रम्भा
बिछा हुआ है जाल रश्मि का, मही मगन सोती है,
अभी मृत्ति को देख कर स्वर्ग को भी ईर्ष्या होती है।
मेनका
कौन भेद है, क्या अंतर है धरती और गगन में,
उठता है यह प्रश्न कभी रम्भे! तेरे भी मन में।
रम्भा
प्रश्न उठे या नहीं, किंतु, प्रत्यक्ष एक अंतर है,
मर्त्यलोक मरने वाला है, पर सुरलोक अमर है।
अमित, स्निग्ध, निर्धूम शिखा सी देवों की काया है,
मर्त्यलोक की सुन्दरता तो क्षण भर की माया है।
मेनका
पर, तुम भूल रही हो रम्भे! नश्वरता के वर को;
भू को जो आनन्द सुलभ है, नहीं प्राप्त अम्बर को।
हम भी कितने विवश ! गन्ध पीकर ही रह जाते हैं,
स्वाद व्यंजनों का न कभी रसना से ले पाते हैं।
हो जाते हैं तृप्त पान कर स्वर-माधुरी स्रवण से
रूप भोगते हैं मन से या तृष्णा भरे नयन से।
पर, जब कोई ज्वार रूप को देख उमड़ आता है,
किसी अनिर्वचनीय क्षुधा में जीवन पड़ जाता है,
उस पीड़ा से बचने की तब राह नहीं मिलती है,
उठती जो वेदना यहाँ, खुल कर न कभी खिलती है।
किंतु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बन्ध नहीं है,
रुके गन्ध तक, वहाँ प्रेम पर यह प्रतिबन्ध नहीं है।
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