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उर्वशी
उर्वशी
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
नर के वश की बात, देवता बने कि नर रह जाए,
रुके गन्ध पर या बढ़ कर फूलों को गले लगाए।
पर, सुर बनें मनुज भी, वे यह स्वत्व न पा सकते हैं,
गन्धों की सीमा से आगे देव न जा सकते हैं।
क्या है यह अमरत्व? समीरों-सा सौरभ पीना है,
मन में धूम समेट शांति से युग-युग तक जीना है।
पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु-रस पीता है!
दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक-धधक जीता है!
इन ज्वलंत वेगों के आगे मलिन शांति सारी है,
क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है।
सहजन्या
साधु ! साधु ! मेनके ! तुम्हारा भी मन कहीं फंसा है ?
मिट्टी का मोहन कोई अंतर में आन बसा है?
तुम भी हो बन गई महीतल पर रूपसी किसी की?
किन्ही मर्त्य नयनों की रस-प्रतिमा, उर्वशी किसी की?
सखी उर्वशी-सी तुम भी लगती कुछ मदमाती हो,
मर्त्यों की महिमा तुम भी तो उसी तरह गाती हो।
रम्भा
अरी, ठीक, तूने सहजन्ये! अच्छी याद दिलाई,
आज हमारे साथ यहाँ उर्वशी नहीं क्यों आई?
सहजन्या
वाह तुम्हें ही ज्ञात नहीं है कथा प्राण प्यारी की?
तुम्हीं नहीं जानती प्रेम की व्यथा दिव्य नारी की?
नहीं जानती हो कि एक दिन हम कुबेर के घर से,
लौट रही थी जब, इतने में एक दैत्य ऊपर से।
टूटा लुब्ध श्येन सा हमको त्रास अपरिमित देकर,
और तुरंत उड गया उर्वशी को बाहों में लेकर।
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